सन्त और उनकी सेवा


सन्तों के सेवन का सर्वोत्तम ढंग है उनके मन, उनकी आज्ञा के अनुसार चलना, उनके सिद्धान्तों का आदरपूर्वक पालन करना। यह सन्त-सेवन की ऊँची-से-ऊँची विधि है।इसका कारण यह है कि सन्तों को अपना सिद्धान्त जितना प्यारा होता है, उतने उनको अपने प्राण भी नहीं होते, जो हम लोगों को सबसे अधिक प्यारे हैं। यही कारण है कि आवश्यकता पड़ने पर वे अपने प्राण छोड़ सकते हैं, पर सिद्धान्त नहीं। अतएव उनके सिद्धान्त का सांगोपांग पालन करना, उनके मन के अनुसार चलना और यदि मन का पता न लगे तो इशारा-आज्ञा आदि के अनुसार चलना चाहिये, यह उनकी सबसे बड़ी सेवा है *‘अग्या सम न सुसाहिब सेवा ’*
अतः शरीर से सेवा करने के साथ ही श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मन से भी सेवा की जाय तो कहना ही क्या है। उनका सिद्धान्त जानने के लिये उनका संग करके उनसे भगवत्सम्बन्धी बात पूछनी चाहिये; इससे हम अधिक लाभ उठा सकते हैं। सन्तों से पुत्र, स्त्री, धन, मान, बड़ाई आदि से सम्बन्ध रखने वाले सांसारिक पदार्थ चाहना अमूल्य हीरे को पत्थरसे फोड़ना है; यह सन्तों के संग का सदुपयोग नहीं है। यों सन्तों के कहने आदि से पुत्र आदि की प्राप्ति भी हो सकती है, किन्तु यह तो उनकी कीमत न समझना है। 
सन्तों को प्रायः हम समझते नहीं। हम लोग तो उसकी बाहरी क्रियाओं की अर्थात्‌ अधिक खाने, नंगा रहने, मिट्टी को सोना बना देने आदि चमत्कारिक बातों की विशेषता देखना चाहते हैं; किन्तु इन बातों से सन्तपने का कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं। सन्तों का यह लक्षण कहीं भी नहीं लिखा हैं। गीता में स्थान-स्थान पर भक्त आदि के लक्षण लिखे हैं, पर उसमें एक स्थान पर भी नहीं लिखा है कि ‘वे बेटा दे देते हैं, वचनसिद्ध होते हैं’ आदि।
सन्तों की पहचान का सीधा-सा उपाय यही है कि जिस व्यक्ति के संग से हमारा साधन बढ़े, हममें दैवी सम्पत्ति आये, हमारे आचरण में न्याय आने लगे, भगवत्तत्त्व का ज्ञान होने लगे, सत्‌-शास्त्र, भगवान्‌, महात्मा, परलोक और धर्म में श्रद्धा बढ़े और भगवान्‌ की स्मृति अधिक रहने लगे, हमारे लिये वही सन्त हैं।सन्तों से ऐसा ही लाभ लेना चाहिये और उनसे इस प्रकार का आध्यात्मिक लाभ लेना ही सच्चा लाभ है। 
भगवान्‌ से लाभ उठाने की पाँच बातें हैं- नाम-जप, ध्यान, सेवा, आज्ञा-पालन और संग। पर सन्तों से लाभ लेने में संग, आज्ञा और सेवा- ये तीन ही साधन उपयुक्त हैं। सन्त-महात्मा पुरुष अपने नाम का जप और अपने स्वरूप का ध्यान कभी नहीं बताते और जो अपने नाम और रूप का प्रचार करते हैं, वे कदापि सन्त नहीं। *सच्चा सन्त तो भगवान्‌ के ही नाम-जप और ध्यान करने का उपदेश देता हैं। हाँ, वह सेवा, आज्ञा-पालन और संग- इन तीन के लिये प्रायः मना नहीं करता। सेवा में कुछ संकोच रखता है और जहाँ तक सम्भव होता है, नहीं करवाता है।*
 सेवा के दो भेद हैं- (१) पूजा, आरती करना आदि, (२) वस्त्र देना, भोजन देना, अनुकूल वस्तुओं को प्रस्तुत करना इत्यादि। 
भगवान्‌ की तो ये दोनों ही सेवाएँ उचित हैं, परन्तु सन्त पुरुष पहले प्रकार की सेवा नहीं चाहते और यदि कोई ऐसी सेवा के लिये आग्रह करता है तो वे अपने स्थान पर भगवान्‌ की ही वैसी सेवा करवाते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि ‘मेरा शरीर हाड़-मांसका है, इसकी सेवासे क्या लाभ !’
दूसरे प्रकार की सेवा वे आश्रम और वर्ण के अनुसार स्वीकार करते हैं। इस प्रकार सेवा भी वह सन्तपने की दृष्टि से नहीं लेता, आश्रम और वर्ण की ही दृष्टि से लेता है, अतएव इन अन्न, वस्त्र आदि वस्तुओं की पूर्ति करना अनुचित नहीं। इस प्रकार की सेवा केवल सन्त ही नहीं, जो भी हो ले सकता है। यदि कोई सन्त नहीं है, पर उसे भूख-प्यास लगी है तो वह कोई भी क्यों न हो, जिस व्यक्ति के पास ये भोजनादि वस्तुएँ हों, उससे शरीरनिर्वार्थ ले सकता है।


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