किसानों की आज़ादी से दिक्कत किसको है ?


किसानों को मंडियों की जंजीरों से आज़ादी किसे बर्दाश नहीं हो रही है वो अब सामने आ गया है।  खुद वो लोग ही हैं जो कल तक किसानों के रहनुमा बनने का दावा करते घूमते थे। कृषि बिल को लेकर शंका से पहले  समाधान का जिक्र कर लें तो तस्वीर काफी साफ़ हो जाएगी। सबसे पहली बात एमसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य पूर्व की तरह ही जारी रहेगी, एमएसपी पर किसान अपनी उपज बेच सकेंगे। मंडियां ख़त्म  नहीं होंगी, वहां पहले की तरह व्यापार होता रहेगा। इस व्यवस्था में किसानों को मंडी के साथ ही अन्य स्थानों पर अपनी उपज बेचने का विकल्प प्राप्त होगा। मंडियों में ई-नाम ट्रेडिंग व्यवस्था भी जारी रहेगी। जाहिर है इलेक्‍ट्रॉनिक प्‍लैटफॉर्म्‍स पर कृषि उत्पादों का व्यापार बढ़ेगा और पारदर्शिता के साथ समय की बचत होगी। ये बात खुद प्रधान मंत्री और कृषि मंत्री भी साफ़ कर चुके हैं , लेकिन विरोध के लिए विरोध करने की सोच ने कही न कही किसानों के हित को दरकिनार कर दिया है।


विश्वकर्मा पूजा के दिन लोक सभा में कृषि सुधार विधेयक के पास होते ही विपक्ष लामबंद हो गया और राज्य सभा में जमकर हंगामा मचाया।  सवाल है विरोध या शंका का आधार क्या है ? क्या दूसरे कारोबारियों की तरह किसानों को अपनी मर्जी से कही भी किसी भी कीमत पर अपना सामान बेचने की आज़ादी नहीं मिलनी चाहिए ?   किसानों से सरकारी खरीद नहीं होगी ऐसा न तो सरकार की तरफ से कहा गया है न विधेयक में ऐसा जिक्र है। कोई भी व्यक्ति अपना उत्पादन दुनिया में कही भी बेच सकता है। कपड़ा,बर्तन ,जूता कही भी किसी भी जगह बेचा जाता है। फिर किसानों को ये आज़ादी क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? इस विधेयक के आने के बाद अब किसान अपनी फसल देश के किसी भी हिस्से में अपनी मनचाही कीमत पर बेच सकेगा।


कृषि सुधार के लिए हर सरकार ने अपने अपने कार्यकाल में तमाम वादे किये। आयोग का गठन भी हुवा। लेकिन सिफारिशें कितनी लागू  हुई और किसानों को कितना फायदा हुआ  ये बड़ा सवाल है।  अन्न की आपूर्ति को भरोसेमंद बनाने और किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने, इन दो मकसदों को लेकर 2004 में केंद्र सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स का गठन किया।  इस आयोग ने अपनी पांच रिपोर्टें सौंपी। अंतिम और  पांचवीं रिपोर्ट 4 अक्तूबर, 2006 में सौंपी गयी, लेकिन इस रिपोर्ट में जो सिफारिशें हैं उसका पूरा फायदा अबतक किसानों को नहीं मिल सका है । इस रिपोर्ट में भूमि सुधारों की गति को बढ़ाने पर खास जोर दिया गया । सरप्लस ,बेकार जमीन को भूमिहीनों में बांटना, आदिवासी क्षेत्रों में पशु चराने के हक यकीनी बनाना और  राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाह सेवा सुधारों के विशेष अंग हैं।


अयोग की सिफारिशों में किसान आत्महत्या की समस्या के समाधान, राज्य स्तरीय किसान कमीशन बनाने, सेहत सुविधाएं बढ़ाने , वित्त-बीमा की स्थिति पुख्ता बनाने पर भी विशेष जोर दिया गया । एमएसपी औसत लागत से 50 फीसदी ज्यादा रखने की सिफारिश भी की गई ताकि छोटे किसान भी मुकाबले में आएं।  किसानों की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य कुछेक नकदी फसलों तक सीमित न रहें, इस लक्ष्य से ग्रामीण ज्ञान केंद्र , मार्केट दखल स्कीम भी लांच करने की सिफारिश रिपोर्ट में है।


 2016 में किसानों की आय बढ़ाने के लिए एक अंतर मंत्रालय समिति का गठन किया गया। इस समिति ने कृषि सुधार से जुड़ी सिफारिशों का अध्‍ययन करते हुए उसे जल्द शुरू करने पर जोर दिया। कृषि क्षेत्र में देश की लगभग आधी श्रमशक्ति काम कर रही  है। हालांकि जीडीपी में इसका योगदान करीब 17.5% है।  पिछले कुछ दशकों के दौरान, अर्थव्यवस्था के विकास में मैन्यूफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों का योगदान तेजी से बढ़ा है, जबकि कृषि क्षेत्र के योगदान में गिरावट हुई है। 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान जहां 50% था, वहीं 2015-16 में यह गिरकर 15.4% रह गया। भारत का खाद्यान्न उत्पादन प्रत्येक वर्ष बढ़ रहा है और देश गेहूं, चावल, दालों, गन्ने और कपास जैसी फसलों के मुख्य उत्पादकों में से एक है। यह दुग्ध उत्पादन में पहले और फलों एवं सब्जियों के उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। हालांकि अनेक फसलों के मामलों में चीन, ब्राजील और अमेरिका जैसे बड़े कृषि उत्पादक देशों की तुलना में भारत की कृषि उपज कम है।


कोरोना काल में जहाँ किसान पहले ही  भूख से दो चार हैं वहाँ नए बिल के विरोध की आग ने उनको और डरा दिया है। अब भी किसानों का एक तबका ऐसा है जो समझ नहीं पा रहा है कि विपक्ष कि सुने या सरकार की। कुछ जगहों पर विरोध प्रदर्शन तेज़ होने की वजह का नाता वहां की राजनीति और किसान संगठनों से तो है ही साथ ही अनाज ख़रीद की सरकारी व्यवस्था से भी है।  किसान आंदोलन के इतिहास को देखें तो आंदोलन का केंद्र ज़्यादातर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश रहा है। महाराष्ट्र की बात करें तो वहां आंदोलन अधिकतर पश्चिमी हिस्से में दिखते हैं जहां गन्ने और प्याज़ की खेती होती है।   मध्यप्रदेश में आंदोलन नहीं होगा ऐसी बात नहीं है।  वहां कभी किसानों के मज़बूत संगठन नहीं रहे हैं।  लेकिन वहां भी मंडियों में इसका विरोध हुआ है और मंडी कर्मचारियों ने हड़ताल की है। महाराष्ट्र में किसान बड़ा वोटबैंक है लेकिन यहां गन्ना किसान अधिक हैं और गन्ने की ख़रीद के लिए फेयर एंड रीमुनरेटिव सिस्टम (एफ़आरपी) मौजूद है और उसका मूल्य तय करने के लिए शुगरकेन कंट्रोल ऑर्डर अभी भी है। जाहिर है जहाँ किसानों को ये समझाया जा रहा है  कि ये बिल उनके हित में नहीं है वहां किसान सड़क पर आ गए हैं। 


वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए बिहार की कई परियोजनाओं का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री  मोदी ने कहा, "जो लोग दशकों तक देश में शासन करते रहें हैं, सत्ता में रहे हैं, देश पर राज किया है, वो लोग किसानों को भ्रमित कर रहे हैं, किसानों से झूठ बोल रह हैं। " प्रधानमंत्री ने कहा कि विधेयक में वही चीज़ें हैं जो देश में दशकों पर राज करने वालों ने अपने घोषणापत्र में लिखी थी।  उन्होंने कहा बिचौलिए जो किसानों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा खा जाते थे, उनसे बचने के लिए ये विधेयक लाना ज़रूरी था। सरकार ने साफ कर दिया है की ये आज़ादी के बाद किसानों को किसानी में एक नई आज़ादी का विधेयक है।


(डॉ नरेंद्र तिवारी)


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