परिवर्तन अनिवार्य लेकिन दिशा हो सकारात्मक
भारत राष्ट्र - राज्य बदल रहा हैं.वैसे भी यह देश एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई होने के चलते एवं अन्य - अन्य कारणों से अलग - अलग संस्कृतियों - सभ्ययताओं का वाहक रहा हैं.विभिन्नता में एकता ही देश की पहचान रही हैं.जो यह सोचते हैं कि सब कुछ एक जैसे हो,उन्हें देश की असल सूरत की जानकारी नहीं हैं. इसे ऐसे समझे कि जितनी गर्मी में राजस्थान का आदमी पगड़ी पहनता हैं , ठीक उतने ही तापमान में केरल का आदमी लुंगी पहनता हैं , एैसे में इस देश में सब कुछ एक जैसा हो ही नहीं सकता.
भारत के इतिहास में सोलह महाजनपद काल से लेकर फिरंगी सरकार की गुलामी तक के समय को संज्ञान में लिया जाये , इसकी समीक्षा की जाय तो यह महादेश जितने तरह के परिवर्तन का सामना वर्तमान में कर रहा हैं , वैसा अवसर कभी नहीं आया .ध्यान दे , यह परिवर्तन केवल राजनीतिक क्षेत्र में नहीं हैं बल्कि इसके दूसरे मोर्चे भी हैं जैसे कि अार्थिक , धार्मिक , सांस्कृतिक ,सामाजिक ... इत्यादि .आज समाज में परिवर्तन के जो मोर्चे खुले हैं ,उस पर अलग - अलग शक्तियां सक्रिय हैं , जो संसार के इस सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता वाले महादेश को अपने - अपने हिसाब से आगे ले जाना चाहते हैं.
यह स्वाभाविक हैं कि जब तरह - तरह के धर्मो - सामाजिक मान्यताओं को मानने वाला मानव समूह भिन्न - भिन्न भौगोलिक स्थितियों वाले स्थान पर रह रहा हो तो उसमें अपने हितों के लिए टकराहट हो.एैसे समय में यह शंका होना स्वाभाविक हैं कि यह टकराहट देश की एकता - अखण्डता के लिए खतरें का कारण न बनें. यदि एैसी कोई स्थिति जन्म लेती है तो भारत का संविधान उन जटिलताओं - चुनौतियों के समाधान में दिशावाहक की भूमिका का निर्बहन करेगा जो संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए खतरे का कारण बन सकता हैं. इसके अतिरिक्त भारत की महान सांस्कृतिक विरासत के मूल्य भी लोकतंत्र को बचाए रखने में वाहक बनेगें. यह हमारे सांस्कृतिक विरासत के मूल्य क्या हैं इसे समझने के लिए अमेरिका के शिकागो शहर में 1893 में आयोजित " विश्व धर्म सम्मेलन " में महान संत स्वामी विवेकानन्द के दिये गए भाषण को पढ़ना होगा , पढ़ने से ज्यादा समझना होगा . इस एैतिहासिक " विश्व धर्म महासभा " में स्वामी जी ने कहा था , " मैं एक एैसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति - दोनों की ही शिक्षा दी हैं. हम लोग सब धर्मो के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन सब धर्मो को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं.मुझे एैसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं जिसने इस पृथ्बी के समस्त धर्मो एवं देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं." मैं व्यक्तिगत तौर पर यह मानता हूं कि इस महादेश में बदलाव के लिए जितने भी राजनैतिक , धार्मिक , जातीय , सामाजिक , स्वैच्छिक ... संगठन सक्रिय हैं यदि वह अपना लक्ष्य संविधान और भारत की महान सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात करके निर्धारित करें तथा अपना कार्य - व्यवहार भी इसी के अनुकूल करें तो शायद बदलाव की प्रक्रियां ज्यादा सकारात्मक होगी.
... नैमिष प्रताप सिंह ...