शाकाहार और मांसाहार का औचित्य
तमसी भोजन वर्ज्य अर्थात मांसाहार समान माना जाता है। यही कारण है कि ज़मीन से निकले प्याज लहसुन नामक शाक भी वर्जित माने जाते हैं किंतु दही नामक लैक्टो बैसिलस जीवाणुओ को ग्राह्य योग्य माना जाता है।
शास्त्रो में आहार का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है यह अब भी शोध योग्य है किन्तु विद्वान ऋषि मुनियों के सूत्र सदा सत्य सिद्ध हुए है इसलिए उनके इस अनुसन्धान के पीछे भी कोई रहस्य अवश्य होगा जिसका उत्तर समय पर निर्भर है। मैं इस सम्बंध में यहां कतिपय शास्त्रीय मत प्रस्तुत कर रहा हूँ।
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥
(-गीता १७.२)
भावार्थ :- गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है - सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी।
यह संसार भी इन तीन गुण की माया (त्रिगुणात्मक माया) से बना है। अतएव इस संसार में तीन प्रकार के भोजन भी होंगे।
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥
- (गीता १७.७)
भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है, वह भी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का होता है। यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है। अब उनके भेदों के विषय में सुनो।
सात्विक आहार
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥
- (गीता १७.८)
भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - जो भोजन सात्त्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध (चिकने), स्वास्थ्यप्रद तथा हृदय को भाने वाला होता है।
आहार (भोजन) का उद्देश्य आयु को बढाना, मस्तिष्क को शुद्ध करना तथा शरीर को शक्ति पहुँचाना है। ऐसे भोजन दीर्घायु को बढ़ावा देते हैं। प्राचीन काल में विद्वान् पुरुष ऐसा भोजन चुनते थे, जो स्वास्थ्य तथा आयु को बढ़ाने वाला हो, यथा दूध के व्यंजन (पनीर, दही इत्यादि), दाल, चीनी, सेम, चावल, गेहूँ, फल, तरकारियाँ (सब्जियां) और अन्य शाकाहारी भोजन शामिल हैं। ऐसे भोजन रसदार, प्राकृतिक रूप से स्वादिष्ट, हल्के और फायदेमंद हैं।
उपर्युक्त भोजन सात्विक गुण व्यक्तियों को अत्यन्त प्रिय होते हैं क्योंकि ये सात्विक आहार है, इनमे अधिक मिर्च, मसाला इत्यादि नहीं होता। यह भोजन उपभोग के लिए नहीं बनते। अन्य कुछ पदार्थ, जैसे भुना मक्का तथा गुड़ स्वयं रुचिकर न होते हुए भी दूध या अन्य पदार्थों के साथ मिलने पर स्वादिष्ट हो जाते हैं। तब वे सात्विक हो जाते हैं। यह शुद्ध शाकाहारी भोजन (सात्विक भोजन) मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन के लिए भी अनुकूल होते है।
राजसी आहार
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥
- (गीता १७.९)
भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - अत्यधिक तिक्त, खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे,शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।
जब शाकाहारी भोजन कड़वा, अत्यधिक खट्टा, नमकीन, गर्म, शुष्क, अत्यधिक मिर्च, चीनी, नमक अर्थात् अधिक मसाले आदि के साथ पकाया जाता है तो वे राजसी बन जाते हैं। क्योंकि राजसी गुण वाली चीजें उपभोग के लिए होती है। ऐसे भोजन बीमार स्वास्थ्य और निराशा उत्पन्न करते हैं। यह भोजन खाने में अच्छा तो लगता है लेकिन इसका परिणाम समय-समय पर रोगों के रूप में प्रकट होता है।
तामसी आहार
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥
- (गीता १७.१०)
भावार्थ :- श्री कृष्ण ने कहा - खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं।
तामसी भोजन अशुद्ध व वासी होता है वह संदूषण या रोग को बढ़ाने वाला होता है। खाने के तीन घंटे पूर्व बना कोई भी भोजन (भगवान् और सिद्ध गुरु (महापुरुष) को अर्पित (जूठन) प्रसाद को छोड़कर) तामसी माना जाता है। बिगड़ने के कारण उससे दुर्गंध आती है, जिससे तामसी लोग प्रायः आकृष्ट होते हैं। मशरूम, शराब, प्याज, लहसुन आदि, सभी पैकेट में बंद भोजन इस तामसी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। यहाँ तक की अशुद्ध भोजन अर्थात् तामसी भोजन में सभी प्रकार के मांस उत्पादों को शामिल किया जाता है। अतएव मांसाहार तामसी भोजन है।
अतैव यह ध्यान रखने योग्य है कि जो आप खाते हैं, उसका प्रभाव आपके मन और क्रिया पर पड़ता है। वेद कहता है जो कुछ हम खाते है उसका प्रभाव हमारे मन पर और हमारे व्यवहार पर पड़ता है।
-निखिलेश मिश्रा