बड़े भाग्य से मिलता है हमें मनुष्य का शरीर
महाराज जी भक्तों को उपदेश दे रहे हैं:
पका
आम जहाँ पेड़ से गिरा, तो आदमी या पशु जिसे मिला, खा लेता है, वही हाल है।
बड़े भाग्य से नर शरीर मिलता है। अगर परस्वारथ परमारथ कुछ न हुआ तो चौरासी
के बन्धन से कभी न छूटेगा। जीव, मौत और भगवान को भूला है। देखता है (लोग)
रोज पैदा होते मरते हैं, गाड़े जाते, फूंके जाते हैं।
वह समझता नहीं है। हम
नहीं मरेंगे। और (कहता है), अरे उठाओ भाई ले चलो, यह तो मृत्यु लोक है।
मरना, पैदा होना, लगा ही रहता है। जहाँ मरघट से लौटे- तहां अपने अपने काम
में लग गये। थोड़ी देर झूठा ज्ञान कहकर फिर अज्ञान के घोड़े पर सवार हो गये।
कहाँ तक लिखें, कौन सुन कर राह पर चलेगा? जैसा
की हममें से बहुत से लोगों को जानकारी होगी, उस सर्वशक्तिशाली परम आत्मा
से अलग होने के बाद, हम आत्माओं को 84 लाख योनियों के पश्चात् मनुष्य का
शरीर मिलता है जिसमें हमें मछली, कछुए, कीड़े- मकौड़े, विभिन्न प्रकार के पशु
-पक्षी इत्यादि का शरीर मिलता है।
इस यात्रा में कितने हज़ारों साल लग जाते
होंगे इसकी तो कल्पना करना ही कठिन है लेकिन जैसे महाराज जी यहाँ पर
संभवतः समझा रहे हैं, बड़े भाग्य से हमें मनुष्य का शरीर मिलता है क्योंकि
इसी मनुष्य शरीर की मदद से ही हम अपने मूल अर्थात उस परम आत्मा से वापस मिल
सकते हैं। लेकिन हममें से कोई विरला ही होता है जो इसका लाभ उठा पाता है
या उठाना चाहता है। हममें से अधिकांश लोग मनुष्य
योनि में ही सैकड़ो जन्म निकाल देते है- हर जन्म में वही चक्र- माँ की कोख
से आना और फिर अर्थी पर चढ़ कर चले जाना और इस चक्र में तीन भाग दुःख के और
एक भाग सुख का और ये सिलसिला चलता ही रहता है…..चलता ही रहता है!
अच्छा अर्थी पर चढ़ कर जाना है, कोई गाड़ा जाएगा तो कोई फूंका जाएगा, कोई जल्दी जाएगा तो तो कोई देर से लेकिन जाना सबको है!! हम
सब ये बातें जानते हैं लेकिन जीवन की आपा-धापी में प्रायः भूल जाते हैं,
तब भी जब हमारे आस- पास किसी की की मृत्यु होती है या तब भी जब हमारे किसी
अपने की मृत्यु हो जाती है। जो कुछ भी हमें अपनी आँखों से दिखता है उसका
नष्ट होना निश्चित है, फिर चाहे वो पका आम हो या मिटटी का बना हमारा शरीर
हो। जिन लोगों को लगातार चलने वाले जन्म मरण के इस
चक्र से बाहर निकलने के तीव्र इच्छा जाग जाती है, वे ईश्वर की सच्ची साधना
में लग जाते हैं, ध्यान के मार्ग पर चलते हैं। इस मार्ग पर यदि उनका दृढ़
संकल्प और धैर्य दोनों ही है और कोई सिद्ध का गुरु सानिध्य मिलने पर
मुक्ति/मोक्ष संभव हो जाता है।
हमें ये भी पता है की ये सब कहना जितना सरल
है करना उतना ही कठिन होता है। इसलिए लाखों में कोई एक साधक ऐसा कर पाने
में सफल हो पता है। संभवतः महाराज जी जो हमें यहाँ
समझाने का प्रयत्न भी कर रहे हैं वो ये है कि सामान्य जीवन बिताने वाले भी
इस बात को समय-समय पर अपने आप को याद दिलाते रहें की हम सब का गंतव्य
मृत्यु ही है -जो कभी भी, किसी को भी आ सकती है !! अब ये हमारे ऊपर है की गंतव्य तक पहुँचने के पहले: क्या हम हम अपना और अपनों का जीवन संवारना चाहते हैं? क्या
हम ये चाहते हैं की हमारे इस जीवन में बीमारियों का कम से कम सामना करना
पड़े, पारिवारिक समस्याएं कम हों, काम-काज में कम विघ्न और क्लेश हों?
अर्थात कष्टों का कम से कम सामना करना चाहते हैं? तो
उसके लिए हमें अपने वर्तमान को स्वीकार करना होगा (जिसकी परिस्थितियां
भगवान ने ही रचीं है- हमारे पूर्व कर्मों के आधार पर), विशेषकर तब जब हम
जीवन में एक ऐसे दौर से गुज़र रहे हों जो हमारे लिए अच्छा नहीं है। ऐसे में
परिस्थितियों से समझौता करके उससे निकलने निरंतर कर्म करते होगा- धैर्य के
साथ। यदि वर्तमान अच्छा है, मधुर है तो उसका रस
लेना चाहिए और उसका आनंद उठाते हुए विनम्र रहना होगा- ये भली-भांति जानते
हुए इस हमारा वर्तमान जैसा भी है वो बदलेगा अवश्य। हमारे जीवन में ईश्वर की
बनाई प्रक्रियों में दो ही अटल है - एक मृत्यु और दूसरा बदलाव। फिर
हमारा वर्तमान कैसा भी हो लेकिन महाराज जी कहते हैं की हमारा कल्याण इसी
में है कि हम अज्ञानता से कर्म ना करें।
बिना सोचे - समझे ऐसा नहीं करना है
जैसे नीचे लिखा है: कभी कोई दूसरा कुछ कर रहा है तो
वैसी ही परिस्थितियों में हम भी वैसे कर दें बिना अपने विवेक का उपयोग
किये हुए- ये सोचने के लिए वो सही कर रहा है गलत। तब भी जब हम जानते हैं
की सबको अपने -अपने किये का भुगतना पड़ता है। ईर्ष्या
में, द्वेष में या जहाँ भी हमारे अहंकार को चोट लगती है तो क्रोधवश हम
अपने -परायों का अहित करने में ज़रा भी नहीं झिझकते, उन्हें पीड़ा देते हैं
और जवानी में ऐसे कर्म करने के लिए तो जैसे हम घोड़े पर ही सवार होते है। फिर
अपने साथ हम अपनों का अहित तब करते हैं जब हम बेईमानी से धन- संपत्ति
अर्जित करते हैं - महाराज जी ने हमें ये बार बार भी चेताया है।
बुरे
कर्म करते समय हम ये भूल ही जाते हैं की ईश्वर अपनी असंख्य आँखों से हमें
देख रहा है और वो इसका फल हमें निश्चित देगा ही देगा। जब ऐसा होता है तो
हमें तकलीफ होती है- कभी-कभी बहुत। ये मैं, मेरा,
मुझे और मेरे के भाव हमें उस सर्वशक्तिशाली ईश्वर के समीप भी नहीं जाने
देता क्योंकि उसकी सच्ची उपासना के लिए हमें इन इन सब भावनाओं को नियंत्रण
करने का निरंतर प्रयत्न करना होगा। निसंदेह ये सरल नहीं है - परन्तु संभव
है महाराज जी के सच्चे भक्तों के लिए। हमें इस बात
पर जागरूक रहने की कोशिश करनी होगी कि जो हम कर रहे हैं, या करने जा रहे
हैं वो क्यों कर रहे !! यदि ये महाराज जी के उपदेशों के विपरीत है तो अच्छा
है की हम वो ना करें।
यदि हमने कोई गलत या बुरा कर्म किया तो: हमारी आत्मा की आवाज़ हमें संकेत करती है ये गलत हुआ है, हमें उसकी उपेक्षा ना करने का प्रयत्न करना होगा, उस गलत किये गए कर्म को सर्वप्रथम हमें स्वीकारना होगा की हमसे गलती हो गयी, ईश्वर से क्षमा मांग कर यदि संभव हो उसे सुधारना होगा। महाराज जी द्वारा बताए गए परमार्थ और परस्वार्थ के मार्ग पर तो चलना ही होगा। थोड़ा
लम्बा ही सही पर इस रास्ते से भी चौरासी के बंधन से छुटकारा मिल सकता है- यदि ईश्वर की कृपा रही और महाराज का आशीर्वाद हमारे साथ हो तो और ऐसे
प्रयत्न करने के पश्चात् हम अपने आज और कल -दोनों में सुख और शांति ला सकते
हैं- ये निश्चित है।
महाराजजी की कृपा सब भक्तों पर बनी रहे।