क्या देश में गरीबी तथा जातिवाद के मुख्य श्रोत राजनैतिक दल हैं ?
हमारे
देश मे संविधान लागू होने के बाद से आज तक जातिवाद की भावना को परास्त
नहीं किया जा सका है। जातिवाद को यदि राजनीतिक संरक्षण न मिलता तो अब तक
इसका वजूद ही मिट चुका होता। जातीय समीकरणों में उलझे राजनैतिक दल सामाजिक
न्याय की मनमानी व्याख्या करते हुए जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। अब तो
सामान्य वर्ग को यह लगने लगा है कि सरकार उनसे बदला ले रही है। राजनैतिक
दलों के क्रियाकलापों से तो यही लगता है कि सामाजिक न्याय इनके एजेण्डे में
ही नहीं है। इन्हें तो किसी कीमत पर सत्ता चाहिए।
संविधान
में समानता है लेकिन सामान्य वर्ग को सिर्फ जाति के कारण अवसर की समानता
नहीं दी जा रही है। यदि आरक्षित वर्ग गरीब है तो सामान्य वर्ग में पैदा
होना क्या अमीर होने की गारन्टी देता है। यह तो वही बात हुई कि पहले तुमने
मुझे अवसर नहीं दिए और अब हम तुमको नहीं देंगे। हमारे
देश में राजनैतिक दलों का जो वर्तमान स्वरुप है, यदि उसी के अनुरूप सब कुछ
चलता रहा तो सामाजिक न्याय सिर्फ सपना बनकर ही रह जाएगा क्योंकि जनता के
प्रतिनिधि अपनी बात संसद/विधान सभा में उठा ही नहीं पा रहे हैं। इस समय
प्रदेश में मतदाता के बीच आपस में बहुत बड़ा मंथन चल रहा है कि आखिर हमारी
आवाज़ उठाएगा कौन? जनहित से जुड़ी निम्न समस्याओं पर किसी राजनैतिक पार्टी
ने अब तक ध्यान नहीं दिया है।
1-प्राथमिक शिक्षा की बदतर स्थिति के कारण गरीब का बच्चा शिक्षा से वंचित।
आजादी के बाद अमीर और गरीब सभी की सरकारें शासन कर चुकी हैं।
2-गरीब को सस्ता व सुलभ न्याय उपलब्ध कराने के इरादे से स्थापित होने वाले
ग्राम न्यायालय नहीं बनाये गए है। गरीब ने न्याय मिलने की आस छोड़ दी है।
3-बेरोजगारों की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है। सरकार संविदा,मानदेय तथा
आउटसोर्सिंग एजेंसियों के माध्यम से कर्मचारियों को नियुक्त करके उनका शोषण
कर रही है। सभी राजनेता,समाज सेवक मौन है।
4-अंग्रेजों के समय से लागू पुलिस ऐक्ट में कोई बदलाव आज तक नहीं किया गया है।
5-जनता की शिकायतों को दूर करने के लिए कोई भी मजबूत तंत्र स्थापित नहीं किया गया है।
राजनेताओं
ने कभी भी ऐसी नीतियां नहीं बनाई जिससे जनता अपने अधिकारों का प्रयोग कर
सकती। आगामी चुनाव में जनता को अपना प्रतिनिधि चुनना चाहिए, क्योंकि
पार्टी प्रतिनिधि भरोसे लायक नहीं रह गए है।
फतेहबहादुर सिंह