लोकमंगल के लिए समर्पित था श्री महन्थ रामश्रयदास जी का जीवन- डॉ. सन्तोष


आज पूज्यपाद श्री महन्थ रामश्रयदास जी की पुण्यतिथि है। वे एक सच्चे साधक थे।पीठ के सद्गुरुओं का अनुसरण करते हुए जीवनपर्यन्त मठ की देखरेख करते रहे। सन्त तो वास्तव में पंछियों जैसे होते हैं।सन्त का जीवन अंदर का जीवन होता है,राजनीतिज्ञ का जीवन बाहर का जीवन होता है।एक केंद्र पर रहता है दूसरा परिधि पर घूमता रहता है। घर से नाराज होकर बालक रामाश्रयदास पँचपोखरी बस्ती से चले थे बनारस के लिए और आ गए भुड़कुड़ा।गुरु कृपा से भुड़कुड़ा में ऐसा खजाना हाथ लगा कि आठों पहर संगीत का अनहद नाद सुनाई देने लगा।सबर के तखत पर बैठकर फकीरी होने लगी।

पलटू साहेब की पंक्तियां श्री महन्थ रामश्रयदास के व्यक्तित्व को सही सही निरुपित करती हैं या कहें कि उन्होंने अपने जीवन को इन पंक्तियों के अनुसार ढाल लिया था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।साहिब वही फकीर है जो कोई पहुंचा होय/जो कोई पहुंचा होय,नूर का छत्र विराजै/सबर-तखत पर बैठि, तूर अठपहरा बाजै/तम्बू है असमान, जमीं का फरस बिछाया/छिमा किया छिड़काव, खुशी का मुस्क लगाया। वे अपने जीवनकाल में शिक्षा का प्रसार करने के साथ साथ सामाजिक बदलाव और बेहतरी के लिए भी कार्य किए।ऐसा लगता था कि उन्होंने अहंकार पर विजय प्राप्त कर लिया हो।उनका निरभिमानी मुखमंडल यह संदेश देता था कि जीवन का एकमात्र अभिशाप अहंकार है।

जीवन में प्रेम पहले है,तब ज्ञान है।जिसने यह सोच लिया कि ज्ञान के पीछे प्रेम आएगा,वह भूल कर बैठ। महन्थ जी ने आज से उनचास वर्ष पूर्व जखनियां जैसे अत्यंत पिछड़े क्षेत्र में जनसामान्य के लिए उच्चशिक्षा का प्रबंध करने के उद्देश्य से संतों की तपस्थली भुड़कुड़ा में महाविद्यालय की स्थापना किया जिसकी ख्याति आज पूरे पूर्वांचल में है।महंथजी जीवन भर भावभजन करते रहे और 14मई 2008 को काया का त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए।लोक मंगल के लिए अपने जीवन को समर्पित करने वाले सिद्ध सन्त का पुण्य स्मरण करते हुए कृतज्ञता पूर्वक सादर नमन।

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