पंचायत चुनाव : संघर्ष है खजाने पर कब्जे को लेकर


उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों के परिणाम क्या आए, अंखमुंदौवल का खेल शुरू हो गया है। यहां चुनाव लड़ने वाली लगभग सारी पार्टियों ने जिला पंचायत सदस्यों के लिए अपने अपने उम्मीदवार घोषित किए थे। यह बात दीगर है कि किसी को पार्टी के चुनाव चिन्ह नहीं मिले थे लेकिन मतदाताओं के बीच यह संदेश जरूर था कि कौन किस पार्टी से चुनाव लड़ रहा है। इस चुनाव में अधिकृत उम्मीदवारों से ज्यादा संख्या तो संबंधित पार्टियों के बागियों और निर्दलीयों की थी।

परिणाम के बाद यह हल्ला बड़ा तेज हुआ कि भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार ज्यादा संख्या में जीतकर आए हैं। कुछ आंकड़े भी सामने आए। अब तो बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने भी दावा ठोंक दिया है कि उनके उम्मीदवार पिछले चुनाव के मुकाबले दोगुनी संख्या में जीतकर आए हैं। आंकड़ों के इस खेल के बीच और दावेदारी के बीच जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लाॅक प्रमुख के चुनावों की मगजमारी शुरू हो गई है। असलियत तब सामने आएगी जब इन पदों के परिणाम सामने आएंगे। जोर आजमाइश के लिए 'घोड़े' मैदान में उतर पड़े हैं लेकिन यह बहुत कड़वा सच है कि 'गांव की सरकार' या 'तीसरी सरकार' में जिस कदर भ्रष्टाचार हो रहा है, वह ईमानदारी और लोकप्रियता का जनाजा निकाल रहा है। यकीन मानिए, अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह चुनाव महज धन कमाने की लिए लड़ा जाने लगा है, प्रतिष्ठा व लोकप्रियता इसमें दोयम दर्जे की वस्तु हो चली है।

पिछले दो तीन दिनों से उत्तर प्रदेश भर में यह बहस छिड़ी हुई है कि किस पार्टी ने चुनाव में बाजी मारी और कौन पीछे रह गया। समाचार चैनलों में, अखबारों में अपने-अपने तरीके से विश्लेषण किए जा रहे हैं। एक विश्लेषण में दावा किया जाता है जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी से आगे निकल गई है जबकि दूसरा विश्लेषण यह दावा करने में पीछे नहीं है कि असल में भारतीय जनता पार्टी समाजवादी पार्टी से आगे है। वजह यह है कि पिछली बार समाजवादी पार्टी की सरकार थी तो उस समय समाजवादी पार्टी ने अधिकांश सीटें और जिला पंचायत अध्यक्ष के पद हथिया लिए थे लेकिन अबकी भारतीय जनता पार्टी ज्यादा सीटें जीतकर आगे निकल गई है। भाजपा के लोग दबी जुबान यह तो कह रहे हैं कि उनका नुकसान हुआ है लेकिन जो जीते हैं, वो उनके ही लोग हैं। टिकट न मिलने से नाराज़ होकर बागी के रूप में लड़ गए, पर वह हैं तो मूलतः भाजपाई , जो हमारे साथ ही रहेंगे।

कुछ मामलों में नेतृत्व ने चूकवश उन्हें समर्थन नहीं दिया लेकिन अपने स्थानीय प्रभाव से उन्होंने चुनाव जीत लिया। यह चुनाव निश्चित रूप से स्थानीयता से प्रभावित होता है और इसमें सरकारी प्रभाव के बजाए निजी लोकप्रियता अथवा नाराजगी ही जिम्मेदार हुआ करती है। बहरहाल इन दावों-प्रतिदावों के बीच असल लड़ाई अब शुरू हुई है ब्लाॅक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष कौन बनेगा। सारा खेल इसी में होने वाला है। सभी पदों के लिए कुल 12 लाख 89 हजार 830 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। जिला पंचायत सदस्य के 3050 पदों के लिए 44,307 उम्मीदवार, बीडीसी के लिए 3,42,439, प्रधान पद के लिए 4,64,717 और ग्राम पंचायत सदस्य के लिए 4,38,277 उम्मीदवार चुनाव लड़े थे। उत्तर प्रदेश में 59,163 ग्राम पंचायतें, 826 ब्लाॅक और 75 जिला पंचायतें हैं। जिनके लिए ग्राम प्रधान और सदस्य चुने गए हैं। क्षेत्र पंचायत समिति के सदस्य (बीडीसी) और जिला पंचायत समिति के सदस्य (डीडीसी) चुने गए हैं। बीडीसी सदस्य ब्लाॅक प्रमुख और डीडीसी सदस्य जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव करेंगे। 

अभी तक तो पैसे का जो खेल चला सो चला, बड़ा खेल अब शुरू होने को है। जिसके बारे में कहा जाता है कि प्रति सदस्य दस लाख से लेकर पचास लाख और एक-एक एसयूवी गाड़ी तक के ऑफर होते हैं। सौदा कैसे और कितने में पटेगा या जरूरत और परिस्थितियों के हिसाब से तय होता है। यह तो चुनाव बाद ही दिखने लगता है कि किसके पास नई नई एसयूवी आ गई है और किसका रुतबा बढ़ गया है। मुश्किल तो यह है कि इस भयावह भ्रष्टाचार की सरकारी स्तर से कभी जांच नहीं होती, इसलिए ऐसी खरीद-फरोख्त अमूमन परंपरा का रूप ले चुकी है। जांच हो भी तो कैसे? जिसकी सरकार होती है, उसी के अधिकांश लोग इन दो महत्वपूर्ण पदों पर काबिज होते हैं, ऐसे में शिकायत हो भी तो जांच करेगा कौन? और तीसरी सरकार के ये चुनाव पिछले पंद्रह बीस सालों में अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। विकास की सारी निधि इन्हीं ग्राम पंचायतों, ब्लाॅकों और जिला पंचायतों में आती है, जिनमें भ्रष्टाचार करके प्रधान, ब्लाॅक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष मालामाल हो रहे हैं।

हाल में हुए पंचायत चुनाव के दौरान एक अनुमान के मुताबिक़ शराब की बिक्री साठ फ़ीसद बढ़ी है। डीज़ल व पेट्रोल की खपत भी चालीस फ़ीसद बढ़ गयी। गाँव मे शराब और मुर्गे की दावत पंचायत चुनाव में आम बात हो गई है। मैं खुद कई मामले जानता हूं कि जहां प्रधान पद के उम्मीदवारों ने एक हजार से लेकर पांच हजार रुपए प्रति वोटर बांटकर वोट खरीदे हैं। आखिर यह सब किस उम्मीद में किया गया। सिर्फ इसीलिए ना कि बाद में ग्राम पंचायत के पैसों से सारी भरपाई हो ही जानी है। मैं ऐसे भी मामले जानता हूं जहां पिता-पुत्र और भाई-भाई प्रधानी का चुनाव लड़ गए। पंचायत के पैसों की उम्मीद में रिश्ते तार-तार हो गए, मर्यादाएं नष्ट हो गईं, अनुशासन टूट गया। गांव-गांव दुश्मनी बढ़ गई है। रिश्तों में परस्पर तनाव आ गया है।

उत्तर प्रदेश में पंचायतों में भ्रष्टाचार करके कच्चे मकानों से महलनुमा मकानों में रहने लगने वाले इन समाजसेवियों के हजारों उदाहरण हैं लेकिन चूंकि इस भ्रष्टाचार में सरकारी अफसर भी पूरी तरह लिप्त होते हैं, इसलिए चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत चरितार्थ होती है और वोट देने वाले सामान्य लोग केवल दांत पीसते रह जाते हैं। इस तरह के भ्रष्टाचार पर काफी हद तक लगाम लग सकती है अगर सरकार केवल ग्राम विकास अधिकारियों, बीडीओ और जिला पंचायत के अपर मुख्य अधिकारियों की सम्पत्ति की ही ठीक से जांच करा दे लेकिन यहां तो वही कहावत लागू होती है कि "न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।" अब तो तीसरी सरकार के चुनाव का क्रेज़ इस हद तक बढ़ गया है कि एमबीए पास युवा और सेलिब्रिटी भी इसमें कूद पड़े हैं। लाखों कमाने वाले इस खेल में क्यों शामिल हो रहे हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।

हमारे देश की परंपरा और संस्कृति सहयोग, साहचर्य और साझेदारी की रही है। आधुनिक भारत में महात्मागांधी गांधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना इसलिए नहीं की थी कि लोग इन गांवों और पंचायतों को लूट का अड्डा बना लें। जनता के टैक्स के पैसे को जन कार्य में न लगाकर अपना घर भर लें। यह विडंबना ही है कि यह सब हो रहा है। इसमें न तो कोई पीछे हटना चाहता है और न ही ईमानदारी से काम करने को तैयार है। हालत यह है कि जहां कहीं जनप्रतिनिधि बेईमान है, वहां ईमानदार अफसर परेशान है और जहां अफसर बेईमान है वहां ईमानदार जनप्रतिनिधि परेशान है। ईमानदारी और बेईमानी के इस दुष्चक्र में हालत यह होने लगी है कि ज्यादातर लोग बेईमानी और भ्रष्टाचार वाला रास्ता ही सरल और सुगम मानने लगे हैं और गांव के सामान्य जन इसे नियति मानकर स्वीकार जैसा कर चुके हैं। यह कहने वाले कम नहीं मिलते कि भले ही भ्रष्टाचार हुआ है लेकिन गांव में कुछ काम तो हो गया। यह भी न होता तो कोई क्या कर लेता और ऐसे ही पलायनवादी व गैरजागरूक लोगों की वजह से भी पंचायतों में यह पाप बढ़ा है।

रतिभान त्रिपाठी

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