अहंकार का समर्पण
ईश्वर परम संपदावान है फिर भी उन्हें पाने के लिये हमें उनके निमित्त कुछ तो देना ही पड़ेगा जिस प्रकार व्यवहार में परस्पर एक दूसरे को वो वस्तु दी जाती है जो कि उसके पास न हो जो वस्तु उसके पास पहले से मौजूद हो उस वस्तु को देने का भला क्या प्रयोजन?
ठीक ऐसे ही जो वस्तु ईश्वर के पास पहले से मौजूद हो, जिस अन्न, धन, संपत्ति को वे सब के लिये बांटते फिरते हैं, उसी अन्न, धन, संम्पति में से अगर हम एक छोटा सा भाग उन्हें अर्पित भी कर देते हैं तो भला वह उनके किस काम का? शास्त्रों का मत है कि ईश्वर के पास सब चीजों का भंडार भरा पड़ा है,सिवाय अहंकार के और मनुष्य के पास भी अपना कुछ नहीं सिवाय अहंकार के भंडार के इसलिए यदि ईश्वर को कुछ देना है तो अपने अहंकार को उनके चरणों में समर्पण कर दें।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः। निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति॥
जीवन में हमारे समस्त दुखों का कारण अहंकार और उससे उत्पन्न ममभाव स्वार्थ और असंख्य कामनायें हैं। विवेक द्वारा अहंकार और स्वार्थ को त्याग कर स्फूर्तिमय जीवन जीना ही वास्तव में संन्यास है।