हिन्दू धर्म का व्यक्ति देहावसान के बाद भी अपने माता-पिता की सेवा करता हैं

हिन्दू धर्म का व्यक्ति अपने जीवित माता-पिता की सेवा तो करता ही है, उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है'श्राद्ध-विधि' इसी भावना पर आधारित है। पुराणों में आता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष की अमावस (पितृमोक्ष अमावस) के दिन सूर्य एवं चन्द्र की युति होती है सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है इस दिन हमारे पितर यमलोक से अपना निवास छोड़कर सूक्ष्म रूप से मृत्युलोक (पृथ्वीलोक) में अपने वंशजों के निवास स्थान में रहते हैं अतः उस दिन उनके लिए विभिन्न श्राद्ध करने से वे तृप्त होते हैं।
 
गरुड़ पुराण में लिखा है कि "अमावस्या के दिन पितृगण वायुरूप में घर के दरवाजे पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता, तब तक वे भूख-प्यास से व्याकुल होकर वहीं खड़े रहते हैं सूर्यास्त हो जाने के पश्चात वे निराश होकर दुःखित मन से अपने-अपने लोकों को चले जाते हैं। अतः अमावस्या के दिन प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करना चाहिए यदि पितृजनों के पुत्र तथा बन्धु-बान्धव उनका श्राद्ध करते हैं और गया-तीर्थ में जाकर इस कार्य में प्रवृत्त होते हैं तो वे उन्ही पितरों के साथ ब्रह्मलोक में निवास करने का अधिकार प्राप्त करते हैं। उन्हें भूख-प्यास कभी नहीं लगती। इसीलिए विद्वान को प्रयत्नपूर्वक यथाविधि शाकपात से भी अपने पितरों के लिए श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। राजा रोहिताश्व ने मार्कण्डेयजी से प्रार्थना की : ‘‘भगवन् ! मैं श्राद्धकल्प का यथार्थरूप से श्रवण करना चाहता हूँ। मार्कण्डेयजी ने कहा : ‘‘राजन् ! इसी विषय में आनर्त-नरेश ने भर्तृयज्ञ से पूछा था। तब भर्तृयज्ञ ने कहा था : ‘राजन् ! विद्वान पुरुष को अमावस्या के दिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।
 
क्षुधा से क्षीण हुए पितर श्राद्धान्न की आशा से अमावस्या तिथि आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं जो अमावस्या को जल या शाक से भी श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और उसके समस्त पातकों का नाश हो जाता है। आनर्त-नरेश बोले : ‘ब्रह्मन् ! मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गति को प्राप्त होते हैं, फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच पाते हैं? भर्तृयज्ञ : ‘राजन् ! जो लोग यहाँ मरते हैं उनमें से कितने ही इस लोक में जन्म लेते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं। कुछ जीव भोगानुकूल शरीर धारण करके अपने किये हुए शुभ या अशुभ कर्म का उपभोग करते हैं। राजन् ! यमलोक या स्वर्गलोक में रहनेवाले पितरों को भी तब तक भूख-प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अंतर्गत रहते हैं जब तक वे मातामह, प्रमातामह या वृद्धप्रमातामह और पिता, पितामह या प्रपितामह पद पर रहते हैं, तब तक श्राद्धभाग लेने के लिए उनमें भूख-प्यास की अधिकता होती है। पितृलोक या देवलोक के पितर श्राद्धकाल में सूक्ष्म शरीर से श्राद्धीय ब्राह्मणों के शरीर में स्थित होकर श्राद्धभाग से तृप्त होते हैं, परंतु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोग हेतु स्थित हैं या जन्म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्य पितर लेते हैं और जीव जहाँ जिस शरीर में होता है, वहाँ तदनुकूल भोगों की प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुँचाते हैं।
 
ये दिव्य पितर नित्य और सर्वज्ञ होते हैं पितरों के उद्देश्य से शक्ति के अनुसार सदा ही अन्न और जल का दान करते रहना चाहिए जो नीच मानव पितरों के लिए अन्न और जल न देकर आप ही भोजन करता है या जल पीता है, वह पितरों का द्रोही है । उसके पितर स्वर्ग में अन्न और जल नहीं पाते हैं। श्राद्ध द्वारा तृप्त किये हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं। आनर्त-नरेश : ‘ब्रह्मन् ! श्राद्ध के लिए और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं, फिर अमावस्या को ही विशेषरूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है ? भर्तृयज्ञ : ‘राजन् ! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत-से समय हैं। मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रांतिकाल, व्यतीपात, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण - इन सभी समयों में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए पुण्य-तीर्थ, पुण्य-मंदिर, श्राद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्धयोग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिए अमावस्या को विशेषरूप से श्राद्ध करने का आदेश दिया गया है, इसका कारण है कि सूर्य की सहस्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम ''अमा'' है उस "अमा'' नामक प्रधान किरण के तेज से ही सूर्यदेव तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं उसी "अमा" में तिथि विशेष को चंद्रदेव निवास करते हैं, इसलिए उसका नाम अमावस्या है। यही कारण है कि अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षय फल देनेवाली बतायी गयी है श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही।
 
श्राद्ध की महिमा बताते हुए ब्रह्माजी ने कहा है ‘यदि मनुष्य पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धप्रमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और माता से लेकर मुझ तक सभी पितर तृप्त हो जायेंगे। जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसीसे भक्तिपूर्वक पितरों के निमित्त पिंडदान भी देगा, उससे पितरों को सनातन तृप्ति प्राप्त होगी। पितृपक्ष में शाक के द्वारा भी जो पितरों का श्राद्ध नहीं करेगा, वह धनहीन चाण्डाल होगा। ऐसे व्यक्ति से जो बैठना, सोना, खाना, पीना, छूना-छुआना अथवा वार्तालाप आदि व्यवहार करेंगे, वे भी महापापी माने जाएंगे उनके यहाँ संतान की वृद्धि नहीं होगी किसी प्रकार भी उन्हें सुख और धन-धान्य की प्राप्ति नहीं होगी। यदि श्राद्ध करने की क्षमता, शक्ति, रुपया-पैसा नहीं है तो श्राद्ध के दिन पानी का लोटा भरकर रखें फिर भगवदगीता के सातवें अध्याय का पाठ करें और ०१ माला द्वादश मंत्र "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" और एक माला "ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा" की करें और लोटे में भरे हुए पानी से सूर्यं भगवान को अर्घ्य दे फिर ११.३६ से १२.२४ के बीच के समय (कुतप वेला) में गाय को चारा खिला दें चारा खरीदने का भी पैसा नहीं है, ऐसी कोई समस्या है तो उस समय दोनों भुजाएँ ऊँची कर लें, आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें : ‘हमारे पिता को, दादा को, फलाने को आप तृप्त करें, उन्हें आप सुख दें, आप समर्थ हैं मेरे पास धन नहीं है, सामग्री नहीं है, विधि का ज्ञान नहीं है, घर में कोई करने-करानेवाला नहीं है, मैं असमर्थ हूँ लेकिन आपके लिए मेरा सद्भाव है
 
श्रद्धा है इससे भी आप तृप्त हो सकते हैं इससे आपको मंगलमय सनातन धर्म में आश्विन कृष्ण पक्ष पितरों के लिए विशेष रूप से पितृपक्ष के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन दिनों सभी पितर गण बिना आवाहन किए ही पृथ्वीलोक पर विचरण करने के लिए आते हैं तथा अपने परिवार के लोगों के द्वारा अर्पित श्राद्ध तर्पण आदि से तृप्त होकर पुनः पितृलोक को चले जाते हैं इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को श्रद्धा के साथ अपने पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। पितृपक्ष में किसका तर्पण करे किसका तर्पण न करें ? यह प्राय: असमंजस की स्थिति बनी रहती है, परंतु हमारे धर्म ग्रंथों में स्पष्ट बताया गया है कि प्रत्येक सनातन धर्मी को पूर्व की तीन पीढ़ी पिता पितामही प्रपितामही के साथ अपने नाना-नानी का श्राद्ध भी करना चाहिए इसके अतिरिक्त अपने उपरेहित, गुरु, ससुर, ताऊ, चाचा, मामा, भाई, बहन, भतीजा, पुत्र, दामाद, भांजा, फूफा, मौसा, मौसी, पुत्र, मित्र, विमाता (सौतेली माता) के पिता एवं उनकी पत्नियों का भी श्राद्ध करने का निर्देश शास्त्रों में दिया गया क्योंकि यह सभी अपने कुल की लोगों की ओर आशा भरी दृष्टि से देखते रहते हैं। जिनके द्वारा उनका श्राद्ध नहीं किया जाता है उनके पितर असंतुष्ट होकर अनेक प्रकार के कष्ट प्रदान करते हैं सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि किसका श्राद्ध कब किया जाय ? इसके लिए हमारे शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि जिसकी मृत्यु जिस तिथि पर हुई हो उसका श्राद्ध उसी तिथि को करना चाहिए।
 
तिथि का निर्धारण कैसे किया जाय ? क्योंकि कुछ लोग अंतिम संस्कार के दिन को पितृ तिथि तिथि के रुप में मान लेते परंतु ऐसा नहीं है। जिस दिन प्राणी अंतिम सांस लेकर इस पंचतात्विक शरीर का त्याग करता है उसी दिन उसकी तिथि माननी चाहिए। परंतु शास्त्रों के निर्देशों की जानकारी ना होने के कारण लोग उहापोह की स्थिति में रहते हैं जिसके कारण उनके द्वारा किया गया श्राद्ध तर्पण पितरों को प्राप्त नहीं हो पाता जिसके फलस्वरूप पितर संतुष्ट नहीं हो पाते। आज आधुनिकता की चकाचौंध में अधिकतर लोग अपने परिजनों की मृत्यु की तारीख तो याद रऱते हैं परंतु तिथि उनको पता नहीं होती है ऐसे में लोग पितृपक्ष में भ्रमित हो जाते हैं कि हम श्राद्ध कब करें ? आज लोग अंधी दौड़ में इतना अधिक व्यस्त हैं कि उनको न तो अपने पितरों की तिथियाँ याद रहती हैं और न ही उनके पास अपने धर्मग्रन्थों का ही अध्ययन करने का समय रह गया है। यद्यपि श्राद्ध विशेष तिथि पर ही करना चाहिए परंतु सोलह दिन के पक्ष में कुछ विशेष तिथियाँ भी हेती हैं जिनको अपने पितरों की तिथि न याद हो उनको इनका लाभ लेना चाहिए इस विषय में शास्त्रों का निर्देश है कि जिनकी मृत्यु स्वाभाविक हुई हो उनका श्राद्ध भाद्रपद पूर्णिमा को करना चाहिए। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा को अपने नाना-नानी का श्राद्ध करना चाहिए यदि परिवार में कोई अविवाहित बालक की मृत्यु हो गयी हो तो ऐसे कुंवारों का श्राद्ध "पंचमी" को होना चाहिए कुल की जितनी सौभाग्यवती स्त्रियां हों उनका श्राद्ध नवमी (मातृ नवमी) को करके श्रद्धा अर्पित की जानी चाहिए।
 
यदि कोई गर्भपात हो गया हो तो उसका श्राद्ध दशमी तिथि को होता है, वैष्णव सम्प्रदाय से पूर्वजों का श्राद्ध एकादशी को मान्य है परंतु एकादशी को अन्नदान वर्जित होने के कारण यह कृत्य द्वादशी को किया जाना चाहिए यदि परिवार में मृत्यु के पूर्व किसी ने संयास धारण कर लिया हो तो उसका श्राद्ध भी द्वादशी को ही होना चाहिए यदि परिवार में किसी की स्वाभाविक मृत्यु चतुर्दशी को हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी को न करके त्रयोदशी या फिर अमावस्या को करना चाहिए क्योंकि चतुर्दशी को उन्हीं का श्राद्ध किया जाता है जिनकी अपमृत्यु हुई हो। अपमृत्यु अर्थात किसी प्रकार की दुर्घटना, सर्पदंश, विष, शस्त्रप्रहार, हत्या, आत्महत्या, अग्नि में जलने, पानी में डूबने या अन्य किसी प्रकार से अस्वाभाविक मृत्यु चाहे जिस तिथि को हुई हो परंतु ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी को ही करने का विधान है यदि उक्त तिथियों में श्राद्ध न कर पाये या तिथि की जानकारी न हो तो सबका श्राद्ध एक साथ अमावस्या को मान्य है इसीलिए इसको *"सर्वपितृ अमावस्या"* कहा जाता है। इस प्रकार विधि विधान से अपने पूर्वजों का श्राद्ध श्रद्धा पूर्वक प्रत्येक व्यक्ति को करना ही चाहिए। कोई ऐसा विघान एवं परिहार नहीं है जो सनातन के धर्मग्रन्थों में न प्राप्त होता हो परंतु आधुनिकता की चकाचौंध में ग्रन्थ लुप्त होते जा रहे हैं और मनुष्य अनेक प्रकार के झंझावातों से घिरता चला जा रहा है।

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