दशरथ और दशानन
इंद्रियाँ यदि वश में न हो तो ये विषय-भोगों में लिप्त हो जाती हैं।-
रामायण में दो पात्र हैं जिनके नाम के आगे दस लगा है ।
दशरथ और दशानन ।
दशरथ किसे कहा जाता है ?
दसों इन्द्रियों को, मन नामक लगाम से कस कर, बुद्धि नामक सारथि के हाथ में मजबूती से पकड़ा कर, जो इस देह नामक रथ की सवारी करने लगा। जो देहादि का गुलाम नहीं रहा, जो अन्तर्मुखी हो गया, परमात्मोन्मुखी हो गया, उस साधक का नाम दशरथ है।
और जो दसों इन्द्रियों का बड़ा बड़ा मुँह फाड़ कर, मनमुखी होकर, संसार के समस्त सुखों को भोगना चाहता है, जो वासनालोलुप है, उस संसारी का नाम दशानन है।
तप दोनों प्रकार के मनुष्य करते हैं, दशरथ जैसे परमात्मा प्राप्ति के लिये तप करते हैं, तो दशानन जैसे सुख प्राप्ति के लिये।
जो दशानन होता है उसके यहाँ काम (मेघनाद) पैदा होता है, जो दशरथ हो जाता है उसके यहाँ राम पैदा होते हैं ।
काम विश्राम को खाता है, और राम विश्राम के दाता हैं ।
कठोपनिषद् में यम भगवान नचिकेता से कहते हैं-
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रगहमेव च॥
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
नचिकेता ! इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो । मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिये इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है।
श्रीमदभागवत में-
अविधेयानि हीमानि व्यापादयितुमप्यलम्।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ॥
उद्योगपर्व १२९/२७
इन्द्रियों पर हमेशा नियन्त्रण रखना चाहिए क्योंकि ये मनुष्य के विनाश के लिये पर्याप्त हैं ।
चाणक्य नीति में चाणक्य कहते हैं-
आपदां कथितः पन्थाः इन्द्रियाणाम् असंयमः।
तद्जयः संपदां मार्गः येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥
चाणक्यनीति
इन्द्रिय असंयम से विपत्तियाँ ही विपत्तियाँ आती हैं और इन्द्रिय संयम से खजाना ही खजाना है I दोनों अवस्थाओं के परिणामों को जानते हुए जिसकी जैसी रूचि हो वैसा करे I
विदुर नीति में-
एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम्।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ॥
जैसे बेकाबू और अप्रशिक्षित घोड़े मूर्ख सारथी को मार्ग में ही गिराकर मार डालते हैं; वैसे ही यदि इंद्रियों को वश में न किया जाय तो ये मनुष्य की जान की दुश्मन बन जाती हैं।
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः।
तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव॥
इंद्रियाँ यदि वश में न हो तो ये विषय -भोगों में लिप्त हो जाती हैं। उससे मनुष्य उसी प्रकार तुच्छ हो जाता है ,जैसे सूर्य के आगे सभी ग्रह। श्रीमदभगवद्गीता में-
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते॥
भगवद्गीता 2|62
विषयों का ध्यान करने से उनके प्रति आसक्ति हो जाती है यह आसक्ति ही कामना को जन्म देती है और कामना ही क्रोध को जन्म देती है ।
इसलिए अष्टवक्र गीता में कहा है-
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र
मा किंचिद् हृदि धारय।
आत्मा त्वं मुक्त एवासि
किं विमृश्य करिष्यसि॥
सभी स्थानों से अपने ध्यान को हटा लो और अपने हृदय में कोई विचार न करो। तुम आत्मरूप हो और मुक्त ही हो, इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है।