ज्ञान, ध्यान, भान भूल गया, सीधा काठ ऐसा शरीर खड़ा रहा
श्री महाराज जी ने अपनी पुस्तक 'भक्त भगवन्त चरितावली एवं चरितामृत' के "दो शब्द" में लिखा है, कुछ समय हुआ भगौती (माँ भगवती) का हुक्म हुआ कि कुछ भक्तौं की कथाएँ लिख दो। अवस्था ८२ की हो गई है, शरीर कमजोर है पर भगौती का हुक्म तो धीरे अभी तक ३०० से ऊपर कथाएँ लिखी हैं। पहिले इनमें से २०० छपैंगी, फिर भगवान की जैसी इच्छा होगी।
जो
बातें स्वयं श्री भगवान, देवी देवताओं व संतों ने श्री महाराज जी के बारे
में इन चार दिव्य ग्रन्थों में कही हैं तथा उपरोक्त भक्तो की कथाओं में
लिखी हैं, जो मैं (प्रकाशक) अपनी निपट बुद्धि से जान सका, वे ही बातें
उन्हीं की कृपा से नीचे लिख रहा हूँ। जगदीशपुरी
धाम की यात्रा के वर्णन में श्री महाराज जी ने लिखा है - "जब गौरांग जी के
मंदिर में गये जहाँ वह छै भुजा से विराजमान हैं तो लम्बी दंडवति करने का
विचार किया तो बड़ा प्रकाश हुआ। मालूम हुआ कि सारा संसार प्रकाशमान है। फिर
लय दशा हो गई।
ज्ञान, ध्यान, भान भूल गया। सीधा काठ ऐसा शरीर खड़ा रहा। तब
भगवान ने अपना दाहिना चरण हमारी छाती पर लगाया। हम होश में आ गये। हमने
चरण को माथे में लगा कर छोड़ दिया। वहाँ पर कबीर जी, मलूक साहेब, कर्मा
माई, हरी दास, नित्यानन्द जी, रघुनाथ, अद्वैताचार्य और श्री बास के दर्शन
हुये। सबने कहा, ''महाराज, कृष्णावतार का यह सखा आप का सुखदेव है।" भगवान
मुस्करा दिये। हमारे आँसुओं की धारा चलने लगी। वै प्रेम के आँसू बर्फ जैसे
ठंडे होते हैं। यह प्रेम की नदी से बहते हैं। दुख की नदी के आँसू गरम होते
हैं। दो नदी आँखों में हैं।"