हमें विद्वान नहीं बल्कि विद्यावान बनने का प्रयत्न करना चाहिए
विद्यावान में ‘जानने की’ उत्कंठा होती है और विद्वान में अपने को ‘मानने की’। जो यथार्थज्ञान रखते हैं वे विद्यावान और जो शाब्दिक ज्ञान रखते हैं वे ही विद्वान का गुण रखते हैं। इसलिये हमें विद्वान नहीं बल्कि विद्यावान बनने का प्रयत्न करना चाहिए।
विद्वान और विद्यावान में अन्तर-
विद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ॥
विद्वान और विद्यावान दोनों में आपस में बहुत अन्तर है। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं,रावण विद्वान है और हनुमान जी विद्यावान है। रावण के दस सिर है। चार वेद और छह: शास्त्र दोनों मिलाकर दस हुए। इन्हीं को दस सिर कहा गया है। जिसके सिर में ये दसों भरे हों,वही दस शीश हैं। रावण वास्तव में विद्वान है । लेकिन विडम्बना क्या है ? सीता जी का हरण करके ले आया। कईं बार विद्वान लोग अपनी विद्वता के कारण दूसरों को शान्ति से नहीं रहने देते। उनका अभिमान ज्ञान का नाश कर देता है और दूसरों की सीता रुपी शान्ति का हरण कर लेता है।और हनुमान जी उन्हीं खोई हुई सीता रुपी शान्ति को वापस भगवान से मिला देते है। यही विद्वान और विद्यावान मे मूलतःअन्तर है।जब हनुमानजी रावण के दरबार में उसको समझाने गये। तो यहाँ विद्वान और विद्यावान का मिलन होता है। जब हनुमान जी ने कहा -
विनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा , ‘मैं विनती करता हूँ’ तो क्या हनुमानजी में बल नहीं है ? नहीं,ऐसी बात नहीं है। विनती दोनों करते हैं,जो भय से भरा हो या भाव से भरा हो । पर रावण ने कहा कि तुम क्या, यहाँ देखो कितने लोग हाथ जोड़कर मेरे सामने खड़े हैं।
कर जोरे सुर दिसिप विनीता। भृकुटी विलोकत सकल सभीता ॥
रावण के दरबार में देवता और दिग्पाल भय से हाथ जोड़े खड़े हैं । और भृकुटी की ओर देख रहे हैं। परन्तु हनुमान जी भय से हाथ जोड़कर नहीं खड़े है। रावण ने कहा भी --
कीधौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
रावण ने कहा, "तुमने मेरे बारे में सुना नहीं है ? तू बहुत निडर दिखता है !" हनुमान जी बोले, "क्या यह जरुरी है कि तुम्हारे सामने जो आये,वह डरता हुआ आये ?" रावण बोला, "देख लो,यहाँ जितने देवता और अन्य खड़े हैं, वे सब डरकर ही खड़े हैं।" तब हनुमान जी बोले, "उनके डर का कारण है,वे तुम्हारी भृकुटी की ओर देख रहे हैं।
"भृकुटी विलोकत सकल सभीता।
परन्तु मैं भगवान राम की भृकुटी की ओर देखता हूँ। उनकी भृकुटी कैसी है ? बोले --
भृकुटी विलास सृष्टि लय होई। सपनेहु संकट परै कि सोई ॥
जिनकी भृकुटी टेढ़ी हो जाये तो प्रलय हो जाय और उनकी ओर देखने वाले पर स्वप्न में भी संकट नहीं आये। मैं उन श्रीराम जी की भृकुटी की ओर देखता हूँ। रावण बोला ,"यह विचित्र बात है। जब रामजी की भृकुटी की ओर देखते हो तो हाथ हमारे आगे क्यों जोड़ रहे हो ?
विनती करउँ जोरि कर रावन।
हनुमान जी बोले , "यह तुम्हारा भ्रम है । हाथ तो मैं उन्हीं को जोड़ रहा हूँ ।" रावण बोला, "वह यहाँ कहाँ हैं ?" हनुमान जी ने कहा, "यही समझाने आया हूँ।’ मेरे प्रभु श्रीराम जी ने कहा था -
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमन्त। मैं सेवक सचराचर रुप स्वामी भगवन्त ॥
भगवान ने कहा है ,सबमें मुझको देखना इसीलिए मैं तुम्हें नहीं,तुझमें भी भगवान को ही देख रहा हूँ।" इसलिए हनुमान जी कहते हैं-
खायउँ फल प्रभु लागी भूखा। सबके देह परम प्रिय स्वामी ॥
हनुमान जी रावण को प्रभु और स्वामी कहते हैं और रावण -
मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेसि अधम सिखावन मोही ॥
रावण खल और अधम कहकर हनुमान जी को सम्बोधित करता है। यही विद्यावान का लक्षण है कि अपने को गाली देने वाले में भी जिसे भगवान दिखाई दे, वही विद्यावान है। विद्यावान का लक्षण है -
विद्या ददाति विनयं ।विनयाति याति पात्रताम् ॥
पढ़ लिखकर जो विनम्र हो जाये,वह विद्यावान और जो पढ़ लिखकर अकड़ जाये,वह विद्वान।तुलसी दास जी कहते हैं -
बरसहिं जलद भूमि नियराये । जथा नवहिं वुध विद्या पाये ॥
जैसे बादल जल से भरने पर नीचे आ जाते हैं,वैसे विचारवान व्यक्ति विद्या पाकर विनम्र हो जाते हैं । इसी प्रकार हनुमान जी हैं - विनम्र और रावण है - विद्वान । यहाँ प्रश्न उठता है कि, विद्वान कौन है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि जिसकी दिमागी क्षमता तो बढ़ गयी,परन्तु दिल खराब हो,हृदय में अभिमान हो, वही विद्वान है। और अब प्रश्न है कि विद्यावान कौन है ? उत्तर में कहा गया है कि जिसके हृदय में भगवान हो और जो दूसरों के हृदय में भी भगवान को बिठाने की बात करे,वही विद्यावान है।हनुमान जी ने कहा ,"रावण ! और तो ठीक है,पर तुम्हारा दिल ठीक नहीं है। कैसे ठीक होगा ? कहा कि-
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम करहू ॥
अपने हृदय में राम जी को बिठा लो और फिर मजे से लंका में राज करो। यहाँ हनुमान जी रावण को यथार्थ ज्ञान देते हैं और उसके हृदय में भगवान को बिठाने की बात करते हैं,इसलिए वे विद्यावान हैं।विद्यावान में ‘जानने की’ उत्कंठा होती है और विद्वान में अपने को ‘मानने की’। जो यथार्थज्ञान रखते हैं वे विद्यावान और जो शाब्दिक ज्ञान रखते हैं वे ही विद्वान का गुण रखते हैं।अर्थात जब तक जानने की पढ़ने की प्रवृत्ति अर्थात विद्या अर्जित करते रहने की प्रवृत्ति रहेगी तब तक अहंकार लोभ और स्वार्थ की प्रवृत्ति नहीं उत्पन्न होगी परन्तु जैसे ही मन में आया कि मैं विद्वान हूँ मैं सब जानता हूँ वैसे ही अहंकार लोभ और स्वार्थ की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जायगी और विद्या का प्रभाव क्षीण हो जायेगा। विद्वान जब अहंकारी लोभी और स्वार्थी हो जाता है तो उसमें पक्षपात प्रवेश कर जाता है जो समाज और राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होता है। इसलिये हमें विद्वान नहीं बल्कि विद्यावान बनने का प्रयत्न करना चाहिए।