सम्मान में नहीं, सम्मान से जीना महत्वपूर्ण है
सम्मान की चाह रखना श्रेष्ठ पुरुषों के स्वभाव के विपरीत है। सहनशीलता अथवा तितिक्षा ही साधु का और श्रेष्ठ पुरुषों का आभूषण है।
जीवन में सम्मान इच्छा और भिक्षा से नहीं अपितु तितिक्षा (सहनशीलता) से जरूर प्राप्त होता है। जीवन को सम्मानीय बनाने की चाहना की अपेक्षा उसे सहनशील बनाने का प्रयास अधिक श्रेयस्कर है।
श्रीमद्भागवत में कहा है कि महान वो नहीं जिसके जीवन में सम्मान हो अपितु वो है जिसके जीवन में सहनशीलता हो क्योंकि सहनशीलता अथवा तितिक्षा ही तो साधु का और श्रेष्ठ पुरुषों का आभूषण है।
सम्मान मिलना बुरी बात भी नहीं मगर मन में सम्मान की चाह रखना अवश्य श्रेष्ठ पुरुषों के स्वभाव के विपरीत है। किसी के जीवन की श्रेष्ठता का मूल्यांकन इस बात से नहीं होता कि उसे कितना सम्मान मिल रहा है अपितु इस बात से होता है कि वह व्यक्ति कितने सम्मान से जी रहा है।
सम्मान में नहीं, सम्मान से जीना महत्वपूर्ण है।
क्वचिद्भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनं
क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि:।
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो-
मनस्वीकारार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम्।।
कभी धरती पर सोना कभी पलंग पर। कभी सब्जी खाना कभी रोटी–चावल। कभी फटे हुए कपडे पहनना कभी बहुत कीमती कपड़े पहनना। जो व्यक्ति अपने कार्य में सर्वथा मग्न हो, उन्हे ऐसी बाहरी सुख दु:ख से कोई मतलब नहीं होता।
अर्थात क्रिया सिद्धि चाहने वाले मनस्वी पुरुष सुख-दु:ख में सम रहते हैं।
विभिन्न परिस्थितियाँ उन पर प्रभाव नहीं डालतीं। भूमि शयन अथवा पलंग पर, शाक के आहार में अथवा उत्कृष्ट व्यंजन में, जीर्ण वस्त्र में अथवा दिव्य वस्त्र में वे एक समान व्यवहार करते हैं॥