श्री रघुवीर का आचरण ही उपदेश है
राम परमात्मा हैं और रावण जीवात्मा जो षडविकारों से ग्रसित है, जब तक अमृत रूपी वैराग्य मन में उत्पन्न नहीं होगा तब तक षड विकार रूपी दीवार नहीं टूटेगी और जीवात्मा एवम् परमात्मा का मिलन नहीं हो सकता।
राम में आचरण का बल है रावण उपदेश भर देता है, आचरण नहीं करता राम का आचरण ही उपदेश है राम जिस रथ पर आरूढ़ हैं शौर्य और धैर्य उसके पहिये हैं जीवन-संग्राम में न अकेली धीरता चलती है, न अकेली शूरवीरता शौर्य चाहिए, पर उतावलापन नहीं धैर्य चाहिए, पर उदासीनता नहीं।
अगर इतिहास में कभी किसी देश की पराजय अंकित होती है तो उसका एक बड़ा कारण विजय-रथ के इन दो पहियों का तालमेल बिगड़ जाना ही होता है शौर्य और धैर्य के दोनों पहिये ठीक रहें तो ऐसे रथ पर आरूढ़ होकर कोई भी युद्ध जीता जा सकता है इस विजय-रथ पर सत्य और शील की दृढ़ ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के लंकाकांड में युद्ध को जीतने के लिये का अत्यंत रोचक ढँग से उल्लेख किया है
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा।
बंदि चरन कह सहित सनेहा॥
रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गये प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेंगे श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे
नाथ न रथ नहि तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना॥
हे नाथ !आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं वह बलवान् वीर रावण किस प्रकार जीता जायेगा कृपानिधान श्री रामजी ने कहा हे सखे सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है
श्रीराम यहाँ रथ और कवच से अधिक शरीर रूपी रथ के गुणों को युद्ध जीतने के लिये महत्व देते हैं इसका अर्थ यह है कि उपकरण से अधिक आवश्यक है कि हथियार चलाने वाला निपुण और गुणवान होना चाहिए
युद्ध जीतने के लिए क्षत्रिय के शरीर रूपी रथ में क्या गुण होने चाहिए, श्रीराम विभीषण को बताते हैं
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे।
छमा कृपा समता रजु जोरे॥
शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं सत्य और शील सदाचार उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम इंद्रियों का वश में होना और परोपकार ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं
ईस भजनु सारथी सुजाना।
बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
ईश्वर का भजन ही उस रथ को चलाने वाला चतुर सारथी है वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥
अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥
निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है शम मन का वश में होना अहिंसादि यम और शौचादि नियम ये बहुत से बाण हैं ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है
यम और नियम का रणक्षेत्र में तथा जनता के लिये अलग अलग हैं इसलिए यहाँ विशेष रूप से कहा गया।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥
हे सखे ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिये जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर॥
हे धीरबुद्धि वाले सखा सुनो जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार जन्म-मृत्यु रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है रावण की तो बात ही क्या है
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज॥
प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिये और कहा हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी आपने इसी बहाने मुझे महान् उपदेश दिया
राम जिस विजय रथ पर आरूढ़ हैं उसमें इस मानवीय कमजोरी की भी काट विद्यमान है इस रथ पर आरूढ़ योद्धा वैराग्य-भावना की ढाल हाथ में लेकर लड़ता है वैराग्य-भावना होगी तो स्वार्थ नहीं पनपेगा। लोकरक्षण राम के युद्ध का मूल उद्देश्य है, इसलिए वे विरति की ढाल के साथ संतोष की कृपाण धारण करते हैं।
आश्चर्य होना चाहिए-यह योद्धा है या संन्यासी संन्यास क्या बिना युद्ध के सिद्ध होता हैनहीं लेकिन यदि योद्धा असंतोष की तलवार उठा ले तो उसका यह स्वार्थ-समर ऐसे विश्वयुद्ध में बदल सकता है जिसकी आग संपूर्ण ध्वंस के बाद भी सुलगती रहेगी पर संतोष की तलवार रक्त की प्यास में पागल नहीं होती।
इतना ही नहीं राम ने दान को फरसा, बुद्धि को प्रचंड शक्ति तथा श्रेष्ठ विज्ञान को सुदृढ़ धनुष बनाने की बात कही है वे मन की स्वच्छता और अडिगता को तरकस का रूप देते हैं, जिसमे शांति, आत्मानुशासन और नियम जैसे असंख्य तीर भरे हुए हैं समाज में जो आयु और ज्ञान की दृष्टि से पूजनीय जन हैं, उनके शुभ संदेश और आशिर्वाद इस रथ पर आरूढ़ योद्धा के वास्तविक रक्षा-कवच हैं।
यह सारी व्यवस्था विजय को सुनिश्चित करनेवाली मूल्य-व्यवस्था है इस रथ पर आरूढ़ होने पर योद्धा स्व-पर के अंतर से मुक्त होकर आत्मा की विशदता से भर जाता है तथा युद्ध उसके लिये जीवन-मूल्यों की स्थापना का उद्योग भर रह जाता है।
हजार बार दुहराये गये झूठ के भरोसे विश्वयुद्ध भले जीता जा सकता हो, मानव बने रहने का युद्ध मर्यादा के सहारे ही जीता जाता है।
झूठ के सहारे जीते गये युद्धों ने मनुष्य को हिंसक पशु बनाया है और धरती को नरक यदि मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाना है और धरती को बेहतर भविष्य देना है तो हमें अपना युद्ध सत् के पक्ष में लड़ना होगा सत् के पक्ष में लड़ने का कलेजा जिसमें होगा, वह धर्म अर्थात कर्तव्य के रथ पर आरूढ़ होगा।